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भोले की दीवानगी जब हद से ज्यादा बढ़ जाए, तब कांवड़िया बनता है..

दीवानगी किसी की भी हो, महबूब की या किसी और की, इंसान कुछ भी कर जाता है। जब ये दीवानगी ईश्वर से हो जाए तो फिर मीरा होती है, जिसे इतिहास में जगह मिलती है और उसकी तुलना राधा से होने लगती है। ऐसी ही दीवानगी जब भोले से हो जाए तो फिर कुछ भी कर गुजरने की ताकत मिलती है। राम के भक्त होते हैं लेकिन भोले के दीवाने, यही कारण है कि भगवान शिव को उनके दीवाने कई नामों से पुकारते हैं। नाम में ऐसी ताकत है कि 200-250 किलोमीटर तक पैदल चलने की ताकत मिल जाती है।

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भोले को खुश करना आसान माना जाता है, उन्हें खुश करने का एक तरीका कांवड़ लाने को भी माना जाता है। हर साल बड़ी तादाद में लोग कांवड़ उठाते हैं, जल लाते हैं और भगवान शिव को चढ़ाते हैं। इस साल महाशिवरात्रि पर मुझे कांवड़ तो नहीं, लेकिन जल लाने का मौका मिला। कभी किसी भी चीज के बारे में जानने के लिए आपको पहले उसके बारे में बनी राय को छोड़ना पड़ता है। तब ही आप नई बात को जान-समझ सकते हैं।

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कांवड़ के बारे में मेरी भी ऐसी ही राय बनी थी, कि कांवड़ लेने सिर्फ क्रिमिनल जाते होंगे, सिर्फ वही लोग होंगे जो गरीब होंगे या जिनके पास समय काफी रहता होगा, लेकिन इस बार मैंने इस राय को तोड़ने के बारे में सोचा। सावन का महीना, लेकिन पवन ना सोर कर रही थी और ना ही शोर, सिर्फ धूप निकल रही थी। 29 जून का दिन, कड़ी गर्मी और हम 4 लोग हरिद्वार में, गाड़ियों की पों-पों, बाइकों की फट-फुट के बीच फंसे खड़े थे।

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हरिद्वार से दिल्ली कांवड़ यात्रा

एक तरफ से भोले-भोले कहते हुए लोग आपके बीच से निकल जा रहे थे। तो पहली बात तो यह है कि कांवड़िये एक दूसरे का नाम ही नहीं लेते हैं, सिर्फ भोले बुलाते हैं। फिर चाहे कुछ भी काम हो, आप भोले हो। आपकी बाइक बीच में खड़ी है, लेकिन कोई ऐसा नहीं है कि आपको गालियां देगा या कहेगा- ओए, साइड से निकाल ले .. ना.. केवल अपनी जगह मिलने पर आपको पास करेगा, लेकिन आप पर थोपा कुछ नहीं जाएगा। हां, इसमें ये जरूर है कि जाम में आपको भी मुश्किल से जगह मिलेगी।

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लड़ाई-दंगे के बारे में खबरें मिलती रहती थीं, लेकिन आपको पता है कि जब कोई कांवड़िया जल उठाता है तो उसकी कोशिश रहती है कि कोई चींटी भी गलती से ना मर जाए.. ऐसे में आप कैसे उम्मीद करेंगे कि वो आपको मारेगा। हां, अपवाद होते हैं लेकिन इससे सभी पर सवाल नहीं उठ सकते।

लोग कहते हैं कि राजनीति और सेना में भ्रष्टाचार होता है, लेकिन आप यूं ही किसी पर सवाल नहीं उठा सकते। आपको कम से कम उस सैनिक से बात तो करनी होगी, जो भ्रष्टाचार को झेला होगा। आप राजनीति में जाएं या ना जाएं लेकिन कम से कम राजनेताओं से ताल्लुक तो रखना होगा ना, तब ही तो आप दावे कर सकोगे कि सब खराब है, केवल आप और आपकी सोच सही है। ऐसा ही कांवड़ यात्रा के बारे में होता है।

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हर की पौड़ी, हरिद्वार

डाक कांवड़ के बारे में भी कुछ का मानना है कि कांवड़िया शोर-गुल करते हैं, दूसरों के साथ बद्तमीजी तक करते हैं तो इसमें ना रेस यानी कंपीटीशन होता है कि कौन तेज डीजे बजाएगा या कौन सबसे जल्दी कांवड़ लाएगा या कौन तेज कांवड़ लाएगा। इसमें भी कई नियम होते हैं, जैसे एक बार अगर डाक कांवड़ चल देती है तो उसे फिर शिव मंदिर में ही रुकना होता है।

खड़ी कांवड़
खड़ी कांवड़

खड़ी कांवड़ यानि जो पैदल लाई जाती है, उसके नियम काफी कड़े हैं। पता है जो खड़ी कांवड़ लाता है, कहीं कांवड़ लेकर बैठना तो दूर, झुक तक नहीं सकता। यदि उसका कुछ सामान गिर जाता है तो दूसरे ‘भोले’ से उठवाना पड़ता है। इतना ही नहीं, कुछ भी जरूरी काम करने के लिए सही जगह ढूंढ़नी होती है, फिर फ्रेश होने के बाद नहाना होता है जिसके बाद ही कांवड़ कंधे पर ले सकते हैं।

अच्छा एक बात और, कुछ लोगों का मानना है कि लोग खाने-पीने मौज उड़ाने कांवड़ लेने जाते हैं। तो जरा समझिए कि आपको कोई कहे कि चलो धूप में, बारिश में, ट्रैफिक में, सुनसान में , भरे जाम में आपको केवल 5 किमी पैदल चलना है तो ही शायद कोई चलने को तैयार हो, फिर 200-250 किमी के बारे में एक पल के लिए सोचकर तो देखिए। हां, नशा करते हैं कांवड़िए, देखा, मन से यही लगा कि गलत करते हैं, फिर सोचा कि नशे में ही कोई इतना कर सकता है। फिर भोले की दीवानगी का नशा हो या अपने महबूब की।

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और हां, कांवड़ क्यों लाई जाती है तो इसके पीछे कुछ कहानियां हैं। किसी के मुताबिक, भगवान परशुराम ने सबसे पहले कांवड़ से गंगाजल लाकर बागपत के पुरा महादेव मंदिर में शिव का जलाभिषेक किया था। कुछ श्रवण कुमार को तो कुछ रावण को पहला कांवड़िया मानते हैं। कुछ मान्यताओं के अनुसार, जब शिव ने विष पी लिया तो उनका शरीर जलने लगा, ऐसे में देवताओं ने शिव पर पवित्र नदियों का शीतल जल चढ़ाया था।

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अंकल, मुझे छोड़ दो न प्लीज़!

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प्रदुम्न ठाकुर

सात साल का एक बच्चा। सुबह स्कूल जाने के लिए उठता है। चेहरे पर बचपने की चमक, स्कूल ड्रेस पहने, शूज़ भी पॉलिश, बाल भी एकदम कंघी किए हुए सिल्की से, छुटपन की शरारतें करता पापा की बाइक पर बैठता है, मम्मी को बाय बोलता है, मम्मी स्वीट किस करती है और फिर वो निकल जाता है। स्कूल पहुंचता है, पापा घर आते हैं लेकिन ठीक 19 मिनट बाद ही एक खबर भी आती है, कि वो नहीं रहा।

हां, वही जिसे सुबह उसकी मां ने आखिरी बार स्कूल के लिए तैयार किया, जिसके बालों में आखिरी बार कंघी की और जिसके पापा आखिरी बार उसे स्कूल की दहलीज़ तक छोड़कर आए। वो प्रदुम्न अब इस दुनिया में नहीं रहा। वही प्रदुम्न जो स्कूल में एक फौजी बनता था, वही जो अक्सर शरारतें करता था, दोस्तों के साथ खेलता भी था, ड्राइवर अंकल को हाय-बाय भी करता था लेकिन उसी स्कूल बस ड्राइवर ने प्रदुम्न का गला रेत दिया।
गुरुग्राम के एक स्कूल की यह खबर जो भी सुनता है, सिहर सा जाता है। दिल दहल सा जाता लेकिन जो भी हुआ, वो था भी बहुत भयानक। प्रदुम्न के गले पर चाकू से वार किए गए, उसकी गर्दन पर निशान थे। जिसने भी ये किया, वो इंसान की श्रेणी में तो नहीं आता होगा (मामले की जांच जारी है)। शायद प्रदुम्न ने भी अपने हत्यारे से कहा होगा, अंकल मुझे छोड़ दो, प्लीज़।
इसे लेकर एक कविता भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है। लेखक तो नामालूम है लेकिन कविता है दिल को छू लेने वाली ..
pradyuman-thakur-ryan-international-school_650x400_51505129830-580x395सवेरे जगा कर नींद से 
अपने हाथो नाश्ता खिलाया होगा 
छोड़ स्कूल के दरवाजे पिता ने 
प्यार  से  हाथ  हिलाया होगा 
बेटा मेरा मेहफूज है वहां 
माँ ने दिल को समझाया होगा 
क्या बीती होगी उस माँ पर 
जब फ़ोन स्कूल से आया होगा 
भागते हूए स्कूल की तरफ 
एक-एक कदम डगमागया होगा 
क्या गुजरा होगा दिल पर पिता के 
इस हाल में जब उसे पाया होगा 
उस जानवर ने जब उसे दबोचा होगा 
वो कितना छटपटाया होगा 
नाम  उसकी  जबान पर 
माँ  बाप का आया  होगा 
उस मासूम को यू बेरहमी से मारते 
क्या एक पल भी  ना वो थरथराया होगा 
कैसे जियेंगे माँ बाप उसके 
ये ख्याल भी ना दिल में आया होगा 
बिखर गए होंगे वो बदकिसमत माँ बाप 
जब उसे आखिरी बार सीने से लगाया होगा 
लौटेगा नहीं कभी वापिस वो 
कैसे खुद को समझाया होगा….

रोजर फेडरर बनना आसान हो, बने रहना मुश्किल

रोजर फेडरर.. केवल एक नाम नहीं है यह, बादशाहत है. एक ऐसे खेल पर जो सच में ‘जेंटलमैन गेम’ है. कइयों ने जितने साल किसी खेल, संस्था, मैदान या संस्थान को नहीं दिए होंगे, उतने तो इनके नाम ग्रैंडस्लैम हैं. फेडरर रिटायर हो गए हैं. अपने आखिरी मैच में वह सिंगल्स नहीं बल्कि डबल्स में उतरे. जोड़ी भी अपने चिर प्रतिद्वंद्वी स्पेन के राफेल नडाल के साथ बनाई. मुकाबला तो नहीं जीत पाए… लेकिन फेयरवेल स्पीच से स्टेडियम में बैठे दर्शकों को ही नहीं, बल्कि अपने करोड़ों फैंस को इमोशनल कर गए. खुद के भी आंखों से आंसू ऐसे बह रहे थे, जैसे कोई झरना पहाड़ों के बीच से खुद जगह बना लेता है, वो गिरता है तो आवाज करता है. आवाज थी लेकिन ये दिल से थी जिसे सुनने के लिए एक दिल होना जरूरी है.

फेयरवेल मैच के बाद फेडरर ने अभिवादन स्वीकार किया, तमाम उन लोगों को याद किया जिनकी वजह से वह आज वहां हैं जहां पहुंचने के लिए अथाह मेहनत, जज्बे और प्रतिभा की जरूरत होती है. उस स्पीच के वीडियो को देखने भर से आप कभी मुस्कुराएंगे, कभी रोएंगे, कभी किसी को याद करेंगे, परिवार की अहमियत, खेल ने क्या दिया और क्या दे सकता है, प्रेम, बेशुमार प्यार, पैसा और उन दिलों में जगह जो महज उस नाम को सुनकर कोर्ट पर रैकेट हिलते देखने आ सकते हैं- जो है फेडरर. स्विट्जरलैंड का एक वो खिलाड़ी जिसने विश्वभर में पहचान बनाई. दुनिया के महानतम टेनिस खिलाड़ियों में से एक- रोजर फेडरर.

अब आते हैं उस तस्वीर पर. फेडरर अपने साथी और स्पेन के दिग्गज राफेल नडाल के साथ बैठे हैं. फेडरर रो रहे हैं. नडाल भी अपनी आंखों से आंसू पोंछ रहे हैं. कभी फेडरर उनसे आगे थे. फेडरर ने ही पहली बार 20 ग्रैंड स्लैम खिताब जीतने का रिकॉर्ड बनाया. आज नडाल सबसे आगे हैं- 22 ग्रैंडस्लैम इस स्पेनिश दिग्गज के नाम हैं लेकिन देखिए, दोनों कितना भावुक थे. एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी की तरह. कितना गजब है ना कि इस तस्वीर पर तमाम ‘ज्ञान’ दिया गया. किसी ने यहां तक कहा कि राजनीति में, या समाज में ऐसे दृश्य नहीं दिखाई पड़ते. मैं तो ये सोच रहा हूं कि हममें से कितने लोग ये स्वीकार कर पाते हैं कि ‘वो’ हमसे किसी ना किसी लिहाज से आगे है. वो किसी प्रतिभा में तो हमसे बीस होगा ही. या फिर वक्त ही उसका अच्छा होगा. आप खुद सोचिए कि जब कोई हमसे आगे निकलता है, खासतौर से हमारे साथ का तो हम कितना खुश हो पाते हैं. कितना उसकी खुशी में खुद को सहज पाते हैं. इससे भी ऊपर तो ये कि कई बार तो उसे गिराने के लिए ताकत झोंकते हैं जिससे कुर्सी हिल जाए और हम उस पर बैठकर ‘भाग्यवान’ बन जाएं.

भाग्य.. लोग कितनी बार इस शब्द को लेकर अपना भाव रखते हैं. कभी किसी को जिंदगी में कुछ हासिल नहीं हो पाता तो भाग्य को दोष देने लगता है. किसी को हासिल हुआ तो कम ही कहते हैं कि भाग्य से मिला. सबको अपनी प्रतिभा याद आने लगती है. लौटकर बात फिर प्रतिभा, अपने कौशल और काबिलियत पर जाकर टिक जाती है. आप खुद सोचिए कि क्या आपको भाग्य से मिल भी जाए तो उसे बरकरार रख पाएंगे. खेल में ही कई ऐसे नाम हैं जिन्हें मिला लेकिन सहेजकर उसे रख नहीं पाए. अर्श से फर्श पर ऐसे गिरे कि आज नाम खोजने से भी नहीं मिल पाएगा, कइयों के तो नाम भी याद नहीं. घमंड, स्वार्थ और तो और किसी की कुर्सी हथियाकर उसपर बैठने वाले ज्यादा दिन तो टिक नहीं पाते, ऐसा इतिहास बताता है.

फिर वो पंक्तियां हैं ना-

‘इज्जतें, शोहरतें, उल्फतें और चाहतें.. सबकुछ इस दुनिया में रहता नहीं
आज मैं हूं जहां कल कोई और था.. ये भी एक दौर है वो भी एक दौर था..’

अब आप ही सोचिए, कोई भी ऐसा है जो भाग्य के बल पर किसी एक पद, प्रतिष्ठा को पकड़कर रख पाया हो. आप शायद ही किसी का नाम ले पाएंगे. अपने आसपास देखिए, खुद को ही टटोलिए. कोई तो मिलेगा जो शिखर तक पहुंचा हो, लेकिन वहां बरकरार नहीं रह पाया. एक बात और- आपको यह भी देखना होगा कि उसे वहां तक पहुंचने में कितने दिन गर्दिश में काटने पड़े. कितने दिन संघर्ष में बिताए. ऐसा भी दौर देखा जब अपनों का रुख बेगानों की तरह था. इंतजार कीजिए, प्रतिभा को बरकरार रखिए, खुद की काबिलियत को और पैना करिए. फिर देखिएगा- वक्त आएगा, आपका भी वक्त आएगा, अच्छा वक्त जरूर आएगा.  इसलिए रोजर फेडरर बनिए, साथ वाला भी आपकी खुशी में खुद को सहज पाए. वो अगर आपसे आगे हो तो भी, आपसे कम हो तो भी. आप रोएं तो वह भी आपके दुख में शामिल हो. आप हंसे तो आप भी उसे ना भूलें. शायद फेडरर बनना आसान हो, फेडरर बने रहना आसान नहीं..

दिल्ली चुनाव- बात मुस्लिम बहुल विधानसभाओं की.. आंकड़े देख लीजिए

फेसबुक अच्छी चीज है, नेटवर्क बनाती है, बिगाड़ती है. जैसा नाम है ना बिल्कुल किताब की तरह ही है. हां, फेस नहीं, इसे फेस वैल्यू समझ लीजिएगा।

तो मैंने एक पोस्ट लिखी..

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इस पर कुछ जानकारों के कमेंट आए, ज्यादातर को मैं निजी तौर पर जानता हूं. तो सोचा कि क्यों ना आंकड़ों के लिहाज से ही खुद को साबित किया जाए. हां, तो अपनी पोस्ट से इतर कोई बात नहीं करूंगा, क्योंकि क्या है कि ना अगर आंकड़ों से ना समझाया जाए तो लोग गलत समझते हैं.

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तो दिल्ली में होने हैं 8 फरवरी को चुनाव, साफ है कि सभी पार्टियां जोर-शोर से लगी हैं. पिछले यानि 2015 में जो विधानसभा चुनाव हुए थे, उसमें कांग्रेस को कोई ज्यादा तवज्जो नहीं दी थी. बीजेपी ने साफ तौर पर हिंदू चेहरों को प्रमुखता दी और आम आदमी पार्टी (केजरीवाल सरजी) ने कमाल कर दिखाया. 70 सीटों में से 67 सीटें जीतकर इतिहास रच दिया.

आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल
आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल

सही में रिकॉर्ड है, कभी देख लीजिएगा लोकतंत्र में इतना जीत का प्रतिशत किसी पार्टी का नहीं रहने वाला.
खैर, दिल्ली में इस बार जो चुनाव होने हैं, उनमें कांग्रेस, बीजेपी और आप , इन्हीं तीनों के बीच जंग है. खास बात यह है कि इस बार आप को छोड़कर बाकी दोनों पार्टियां भी मेहनत कर रही हैं. होता क्या है ना कि सत्ता में जो भी पार्टी हो, उसके काम पर वोट मिलता है और बाकी को दूसरे मुद्दों पर.

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शाहीन बाग में प्रदर्शन (india today)

तो बात माहौल की, जैसा कि देश में सीएए यानि नागरिकता संशोधन अधिनियम के बाद हो रहा है, जाहिर है कि चुनाव से उसका काफी लेना-देना रहने वाला है. आप उम्मीदवारों के बयान, और पार्टी मुखियाओं के हाव-भाव देख लो, सब पता चल जाएगा.

अच्छा तो लौटते हैं फेसबुक पोस्ट पर. तो 3 मुस्लिम बहुल विधानसभा की बात कर लेते हैं. आंकड़े 2015 के और फिर खुद ही कंपेयर कर लीजिएगा.

पहली मुस्तफाबाद- 2015 में कुल वोटर थे- 2,33,445
वोटिंग हुई और वोट पड़े कुल 1,65,269 यानि कि 70 प्रतिशत से भी ज्यादा. अब आप देखिए कि जीता कौन- बीजेपी के जगदीश प्रधान.

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लाल घेरे में जगदीश प्रधान

हैरानी हुई और होनी भी चाहिए, लेकिन आप आंकड़े देखिए. बीजेपी को मिले थे 58388 वोट, करीब 35 प्रतिशत लेकिन कांग्रेस के हसन अहमद को मिले 52357 वोट, करीब 31 प्रतिशत. झाडू वाले (आप) से थे मोहम्मद यूनुस को मिले 49791 करीब 30 प्रतिशत. समझ गए होंगे कि जगदीश जी केवल किस्मत के बल पर जीत गए. मुस्लिम वोट बंट गए, यदि आप से कोई आदित्य त्रिपाठी होते तो..?

दूसरी सीलमपुर विधानसभा- वोटर थे कुल 1,55,741, मतदान करने पहुंचे कुल 1,11,797 वोट. फिर वही 71 प्रतिशत से भी ज्यादा. जीता कौन- आम आदमी पार्टी के मोहम्मद इशराक (जिनका टिकट इस बार काट दिया गया). इशराक जी को मिले कुल 57302 वोट, 51 प्रतिशत से भी ज्यादा. दूसरे नंबर पर रहे बीजेपी के संजय जैन, मिले 29415 वोट और तीसरे नंबर पर कांग्रेस के चौधरी मतीन अहमद (मिले 23791 वोट). गणित समझिए कि 71 में से 51 प्रतिशत वोट तो झाडू ने ही साफ कर दिए. साफ है कि मुस्लिम वोट गए आप के पास.

तीसरी – ओखला सीट, जिसमें कुल वोटर रहे 273543, मतदान हुआ 60 प्रतिशत से ज्यादा यानि 1,66,658. यहां भी झाडू ने कमाल दिखाया और अमानतुल्लाह खान ने 62 प्रतिशत से ज्यादा (104271) वोटों पर हाथ साफ कर दिया. बीजेपी के ब्रह्म सिंह को 39739 और कांग्रेस के आसिफ मोहम्मद खान को 20135 करीब 12 प्रतिशत वोट.

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दिल्ली कांग्रेस के नेता (बीच में सुभाष चोपड़ा)

गणित समझ में आ गया होगा कि ‘आप’ ने जो वोट काटे, वो सीधे कांग्रेस के. जिन तीनों विधानसभा की बात की गई है ना, उन्हीं में चल रहे हैं प्रदर्शन, जाहिर है कि जिसका वोट बैंक छिटका, वही तो खींचने की जुगत करेगा ना. देखिए, 2008 चुनावों में मुस्तफाबाद में थे कुल वोट 168508, सीलमपुर में थे 147481 और ओखला में थे 209643.

ओखला में तब जीते थे कांग्रेस के परवेज हाशमी जिन्हें मिले थे कुल 28.53 प्रतिशत वोट. आसिफ साहब तब बीजेपी से लड़े थे और पाए थे 28 प्रतिशत वोट, मार्जिन था केवल 541 वोट का. सीलमपुर में जीते थे मतीन जी (कांग्रेस से) पाए थे 54 प्रतिशत वोट. मुस्तफाबाद से जीते थे वही कांग्रेस के हसन अहमद पाए थे 40 प्रतिशत वोट. साफ है कि किसके वोट बैंक में सेंध लगी. अब सेंध लगी तो उसे पाने की जद्दोजहद में काम हो रहा है.

हां, लेकिन समझदारी से वोट करें, मति लगाकर मतदान करिएगा.

अपनी बारी का इंतजार करो या खुद बनो ड्राइवर.. आपका फैसला

आप क्या करते हैं जब आपको कोई बात विचलित करती है.? कोई भी बात परेशान करती है. कुछ सोचने से ऐसा लगता है कि यह क्यों हुआ या क्यों हो रहा है. तब हर कोई कुछ ना कुछ करता ही होगा. बहुत कम लोग हैं, जो हाथ पर हाथ रखते होंगे और कहते होंगे- जो कुछ हो रहा है, होने दो। हम ऐसे ही होते हैं. कुछ ना कुछ करने वाले लोग हार नहीं मानते हैं, या मानते भी हैं तो उसे जाहिर नहीं करते. उसका कारण है- सीधा सा कारण यही कि आप किसी के सामने हार मानोगे तो सामने वाला आपको कमजोर समझने लगता है.
इस पर ना एक कहानी है. रामायण से जुड़ी. जब श्री राम समुद्र के सामने आग्रह कर रहे होते हैं कि आप मुझे लंका जाने के लिए रास्ता दें. समुद्र देव भी ना जाने कहां सोए रहते हैं. फिर श्री राम धनुष चढ़ाते हैं, समुद्र देव घबराकर उठ खड़े होते हैं. उन्हें डर सताता है कि यदि श्री राम ने अगर समुद्र को सुखा दिया तो काहे की हेकड़ी रहेगी. सूख कर तो नदी से भी गए गुजरे हो जाएंगे.
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ऐसा ही कुछ ना जीवन में होता है. आप बड़े बनते हैं. कई बार दूसरों से बड़े बनकर दिखाते हैं. कई बार हेकड़ी दिखा देते हैं. कई बार चुपचाप सुन लेते हैं लेकिन ये जो सुनना है ना-हमेशा नहीं होता. होता तब ही है जब सुनाने वाला या तो आपसे बहुत मजबूत हो या बहुत कमजोर. मजबूती के मामले में तो कुछ भी हो सकता है, शारीरिक हो या मानसिक हो या ओहदा. कमजोर के मामले में उसकी वाणी, कहने का अंदाज, बोलने की बातें बहुत ज्यादा असर डालती है. जैसे- मान लीजिए कोई बच्चा किसी से प्यारे से लहजे में कुछ मांग ले तो सामने वाला सुनता है. कोशिश करता है कि मैं उस बच्चे को पल भर की खुशी दे सकूं.

हर व्यक्ति सोचता है कि जो वह कर रहा है, उसमें बेहतर दे. करता भी है, परिणाम भी मिलते हैं. कई बार सुखद तो कुछेक दुखद. हां, दुख भी होता है जब आप किसी काम को करें और मन मुताबिक आपको परिणाम ना मिले. जीवन ना ऐसा ही होता है. चलता है, चलाता है, लोग जुड़ते हैं, फिर छोड़ भी देते हैं. कुछ साथ भी निभाते हैं, कुछ बातें सुनाते हैं. कुछ ताने मार देते हैं, कुछ सुनकर भी छोड़ देते हैं, जाने देते हैं.

बेहतर करने के लिए हर इंसान को एक प्रेरणा की जरूरत होती है, कोई हो जिसके जैसा बनने की चाहत हो. जो रोल मॉडल बनने जैसा हो. हम वही प्रेरणा ढूंढ़ते हैं. कुछ लोग कहते हैं ना कि हम खुद से ही प्रतिस्पर्धा करते हैं. हो सकता है लेकिन उसके लिए उन्हें सुपर से भी ऊपर होना चाहिए.
कुछ लोग एक ट्रैक खोजते हैं, तो कुछ ढूंढ़ते हैं एक प्लेटफॉर्म. ट्रैक वाले मेहनती किस्म के होते हैं. प्लेटफॉर्म वाले अपनी बारी का इंतजार करने वाले. ट्रैक वाले वही लोग होते हैं जो गाड़ी चलाने की कोशिश करते हैं. प्लेटफॉर्म वाले वो लोग जो गाड़ी में बैठकर मंजिल पर पहुंचना चाहते हैं. आप किस किस्म के हो, यह आपको तय करना होता है. लीडर बनने के लिए खुद की काबिलियत को समझना भी होता है. आत्मविश्वास खुद से आता है, उसे कोई दूसरा सिर्फ बता सकता है लेकिन जगाना आपको खुद से ही पड़ता है. फिर कोशिश करते रहने से मंजिल जरूर मिलती है. सिर्फ आपको पहचानना होता है कि आप ट्रैक खोजने वाले हो या प्लेटफॉर्म वालेtain….