दीवानगी किसी की भी हो, महबूब की या किसी और की, इंसान कुछ भी कर जाता है। जब ये दीवानगी ईश्वर से हो जाए तो फिर मीरा होती है, जिसे इतिहास में जगह मिलती है और उसकी तुलना राधा से होने लगती है। ऐसी ही दीवानगी जब भोले से हो जाए तो फिर कुछ भी कर गुजरने की ताकत मिलती है। राम के भक्त होते हैं लेकिन भोले के दीवाने, यही कारण है कि भगवान शिव को उनके दीवाने कई नामों से पुकारते हैं। नाम में ऐसी ताकत है कि 200-250 किलोमीटर तक पैदल चलने की ताकत मिल जाती है।
भोले को खुश करना आसान माना जाता है, उन्हें खुश करने का एक तरीका कांवड़ लाने को भी माना जाता है। हर साल बड़ी तादाद में लोग कांवड़ उठाते हैं, जल लाते हैं और भगवान शिव को चढ़ाते हैं। इस साल महाशिवरात्रि पर मुझे कांवड़ तो नहीं, लेकिन जल लाने का मौका मिला। कभी किसी भी चीज के बारे में जानने के लिए आपको पहले उसके बारे में बनी राय को छोड़ना पड़ता है। तब ही आप नई बात को जान-समझ सकते हैं।
कांवड़ के बारे में मेरी भी ऐसी ही राय बनी थी, कि कांवड़ लेने सिर्फ क्रिमिनल जाते होंगे, सिर्फ वही लोग होंगे जो गरीब होंगे या जिनके पास समय काफी रहता होगा, लेकिन इस बार मैंने इस राय को तोड़ने के बारे में सोचा। सावन का महीना, लेकिन पवन ना सोर कर रही थी और ना ही शोर, सिर्फ धूप निकल रही थी। 29 जून का दिन, कड़ी गर्मी और हम 4 लोग हरिद्वार में, गाड़ियों की पों-पों, बाइकों की फट-फुट के बीच फंसे खड़े थे।
एक तरफ से भोले-भोले कहते हुए लोग आपके बीच से निकल जा रहे थे। तो पहली बात तो यह है कि कांवड़िये एक दूसरे का नाम ही नहीं लेते हैं, सिर्फ भोले बुलाते हैं। फिर चाहे कुछ भी काम हो, आप भोले हो। आपकी बाइक बीच में खड़ी है, लेकिन कोई ऐसा नहीं है कि आपको गालियां देगा या कहेगा- ओए, साइड से निकाल ले .. ना.. केवल अपनी जगह मिलने पर आपको पास करेगा, लेकिन आप पर थोपा कुछ नहीं जाएगा। हां, इसमें ये जरूर है कि जाम में आपको भी मुश्किल से जगह मिलेगी।
लड़ाई-दंगे के बारे में खबरें मिलती रहती थीं, लेकिन आपको पता है कि जब कोई कांवड़िया जल उठाता है तो उसकी कोशिश रहती है कि कोई चींटी भी गलती से ना मर जाए.. ऐसे में आप कैसे उम्मीद करेंगे कि वो आपको मारेगा। हां, अपवाद होते हैं लेकिन इससे सभी पर सवाल नहीं उठ सकते।
लोग कहते हैं कि राजनीति और सेना में भ्रष्टाचार होता है, लेकिन आप यूं ही किसी पर सवाल नहीं उठा सकते। आपको कम से कम उस सैनिक से बात तो करनी होगी, जो भ्रष्टाचार को झेला होगा। आप राजनीति में जाएं या ना जाएं लेकिन कम से कम राजनेताओं से ताल्लुक तो रखना होगा ना, तब ही तो आप दावे कर सकोगे कि सब खराब है, केवल आप और आपकी सोच सही है। ऐसा ही कांवड़ यात्रा के बारे में होता है।
डाक कांवड़ के बारे में भी कुछ का मानना है कि कांवड़िया शोर-गुल करते हैं, दूसरों के साथ बद्तमीजी तक करते हैं तो इसमें ना रेस यानी कंपीटीशन होता है कि कौन तेज डीजे बजाएगा या कौन सबसे जल्दी कांवड़ लाएगा या कौन तेज कांवड़ लाएगा। इसमें भी कई नियम होते हैं, जैसे एक बार अगर डाक कांवड़ चल देती है तो उसे फिर शिव मंदिर में ही रुकना होता है।
खड़ी कांवड़ यानि जो पैदल लाई जाती है, उसके नियम काफी कड़े हैं। पता है जो खड़ी कांवड़ लाता है, कहीं कांवड़ लेकर बैठना तो दूर, झुक तक नहीं सकता। यदि उसका कुछ सामान गिर जाता है तो दूसरे ‘भोले’ से उठवाना पड़ता है। इतना ही नहीं, कुछ भी जरूरी काम करने के लिए सही जगह ढूंढ़नी होती है, फिर फ्रेश होने के बाद नहाना होता है जिसके बाद ही कांवड़ कंधे पर ले सकते हैं।
अच्छा एक बात और, कुछ लोगों का मानना है कि लोग खाने-पीने मौज उड़ाने कांवड़ लेने जाते हैं। तो जरा समझिए कि आपको कोई कहे कि चलो धूप में, बारिश में, ट्रैफिक में, सुनसान में , भरे जाम में आपको केवल 5 किमी पैदल चलना है तो ही शायद कोई चलने को तैयार हो, फिर 200-250 किमी के बारे में एक पल के लिए सोचकर तो देखिए। हां, नशा करते हैं कांवड़िए, देखा, मन से यही लगा कि गलत करते हैं, फिर सोचा कि नशे में ही कोई इतना कर सकता है। फिर भोले की दीवानगी का नशा हो या अपने महबूब की।
और हां, कांवड़ क्यों लाई जाती है तो इसके पीछे कुछ कहानियां हैं। किसी के मुताबिक, भगवान परशुराम ने सबसे पहले कांवड़ से गंगाजल लाकर बागपत के पुरा महादेव मंदिर में शिव का जलाभिषेक किया था। कुछ श्रवण कुमार को तो कुछ रावण को पहला कांवड़िया मानते हैं। कुछ मान्यताओं के अनुसार, जब शिव ने विष पी लिया तो उनका शरीर जलने लगा, ऐसे में देवताओं ने शिव पर पवित्र नदियों का शीतल जल चढ़ाया था।